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देवसभा में मूरख !

हमार देश
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आदरणीय शुभजनों ,……सादर प्रणाम !…….महाशिवरात्रि के पवित्र स्नान के साथ महाकुम्भ का समापन हो गया !…मूरख अयोध्याजी होते हुए दो दिन बाद पुनः तीर्थराज पहुंचा ,…रास्ते भर मन में व्याकुल भँवरे नाच रही थी ,.. संगम तट पर स्नानार्थी पवित्र जलक्रीड़ा में मग्न मिले ,… मूरख तुरंत यमुना मैय्या की गोद में घुसकर अनुपम वात्सल्य का आनंद लेने लगा !….देरी के लिए माँ से क्षमा मांगी तो उत्तर मिला ,… “…तुम कौन होते होते हो देर करने वाले !….जब चाहा तभी तो आये !…”

प्रश्न उठा …… “..लेकिन महाकुम्भ तो विसर्जित हो गया !…आपने जिस लिए बुलाया था ,..वो कार्य कैसे होगा !..”

माँ खनकदार हंसी के बाद बोली … “…पगले…..महाकुम्भ विसर्जित हो गया लेकिन दैव सभा का विसर्जन नहीं हुआ !…..यहाँ सदा सर्वदा सभी देव विराजते हैं ,….सभी विशेशांशों को तीरथराज कल विदा करेंगे ,… .. तुम सही समय पर आये हो ! ….”

“…मुझ अयोग्य पतित पर कृपा करो माँ ,.. वहां जल्दी ले चलो !…”………………व्याकुल प्रार्थना पर माँ गंभीर होकर बोली .

“…यदि तुम अयोग्य होते तो आमंत्रण कैसे मिलता पुत्र !……….जाओ गंगाजी के तट पर बैठो ,..कोई परीक्षा ले सकता है !….तुम तटस्थ ही रहना !..”

आज्ञा शिरोधार्य कर संगम के दूसरी तरफ बहती माँ गंगा के किनारे बैठकर प्रभु स्मरण करने लगा ,…….कुछ ही पलों के बाद दो साधु ऊंचे स्वर में बतियाने लगे ,…एक ने दूसरे को गंधौरा कहा तो दूसरे ने कलूटा कहकर सम्मान बढ़ाया !……आँख खुली तो भोले बाबा बनावटी क्रोध से मुझे ही ताक रहे थे ,…अंदर से हंसी निकली जो बाहर आते आते मुस्कान तक सीमित रह गयी ,…सहसा अंदर से आवाज आई … मैं न मानूंगा !

फिर आँख बंद करते ही आवाज आई !…………“…….जिन उत्तरों को खोजने में तुम्हारे पूर्वजों ने असंख्य जन्म तपा दिए ,..उन्हें बिना कुछ किये पाना चाहते हो !…… तुम तो उनके दिखाए बताए सत्यमार्ग पर भी नहीं चल पाते !……..आओ मूरखराज !..”………….लगा जैसे निकटतम सम्बन्ध क्रोधयुक्त स्नेह से बुला रहा है ………बोरिया बिस्तर समेटकर अदृष्य आत्मा के साथ हो लिया .

कुछ ही पलों में विराट सभा सामने थी ,….कांपते क़दमों से ड्योढ़ी पर ठिठका तो यमुना मैय्या ने प्रेम से बुलाया ….तुम्हारा स्वागत है पुत्र !….. मूरख अद्भुत चकाचौंध में खो गया ,…..धराहीन विराट मंच पर परमानंदमयी श्रीहरि माता लक्ष्मी संग विराजमान थे ,…..हजारों सूर्यों का तेज लिए भगवान भोलेनाथ माता पार्वती के साथ बैठे थे ,….जगत रचयिता ब्रम्हाजी ,…माता सरस्वती भी मंचासीन थी ,……सभा में भगवान श्रीगणेश ,.कार्तिकेय .. इंद्र आदि अनेकों देवी देवता विराजमान थे ,……सनत सनंदन नारद आदि अनेकों महर्षि एक तरफ बैठे थे ,…तीर्थराज मंच के निकट अपने दिव्य आसन पर बैठे थे ..जहाँ तक नजर गयी अंतहीन दिव्यात्मायें बैठी मिली ,…महादिव्य सभा का वर्णन करना सूर्य को लालटेन दिखाने जैसा है ,…..मूरख की हालत शीशमहल के कीड़े जैसी हो गयी ,…..मनःस्थिति समझकर नारद जी ने खड़े होकर वीणा झनकायी.

“..नारायण नारायण ……तुम यह दर्शन करने वाले प्रथम मानव हो ,…तुम्हे तो गर्वित होना चाहिए !……”……………………..कोई शब्द भाव नहीं मिले तो दंडवत हो गया ,…फिर उठने की इच्छा नहीं हुई ………काफी देर बाद नारद जी उठाते हुए बोले .

“..पूछो वत्स क्या पूछना चाहते हो !…”…………समस्त शक्तियां मेरी तरफ सस्नेह देखने लगी ,….

मूरख मंच की तरफ देखते हुए बोला ….. “..पूछने के लिए कुछ नहीं है प्रभु .. किन्तु जानना सब चाहता हूँ !…” …..त्रिदेव त्रिशक्ति की मंद मुस्कान और मोहक हो गयी …….नारद जी फिर बोले

“…नारायण नारायण ,…यह मूरख तो बहुत चालाक है प्रभु !….”……….

“..तुम सत्य कह रहे हो नारद !…”………….श्रीहरि के सुर्ख होंठ खुलते ही जैसे लाखों वाद्ययंत्रों ने एकसाथ सुमधुर स्वरलहरी फैलाई ,….मूरख पुनः दंडवत हो गया …….श्रीहरि आगे बोले

“..ये मूरख ब्रम्हा जी की अद्भुत रचना है  ,…ये स्वयं समस्या और स्वयं समाधान है !……………..उठो मूर्खराज जो कहना चाहते हो निःसंकोच कहो !….आज हम तुम्हारे लिए ही बैठे हैं !..”…………………………उठाते ही अश्रुधार से फिर शीश समर्पित कर दिया ,…..

“.उठो वत्स !….आज रोने का कोई अर्थ नहीं है ,…तुम्हे तो आनंदित होना चाहिए !..”….नारद जी ने फिर सहारा दिया तो रोते रोते मुस्कान आ गयी ….बोल पड़ा  ….. “..दीनानाथ ये विडंबना क्यों !….आपकी पावन धरा पाप से दूषित क्यों !…..आपके मूरख पतित क्यों !…..आपके प्रियपुत्र अज्ञानी क्यों !..”

“…. पहले अपनी बात करो पुत्र !…… मेरे अनन्य प्रयासों के बाद भी तुम संशयग्रस्त क्यों रहते हो !..”……दीनानाथ ने स्नेह से प्रश्न पूछा

“..इसलिए परमपिता कि मैं कुछ भी नहीं जानता !…..अज्ञान विचलित करता है ,….”………मूरख के उत्तर पर श्रीहरि मुस्काए

“…मेरे रहते तुम्हारा विचलन कदापि उचित नहीं है ,…तुम अज्ञानी नही हो !….संशयग्रस्त होकर पतन प्राप्त करोगे ,…..मैंने सदैव बताया है कि इच्छारहित होकर कर्मरत रहो !…..तब मुझे प्राप्त कर सकोगे !… .”

“..ये मेरी क्षमता से बाहर है दयानिधान !…..आप ही कर सकते हो !…”……मूरख ने मजबूरी दिखाई तो मंद मधुर हंसी से वातावरण सुगन्धित हो गया ,….

“.क्षमता का परिष्कार होता है ,… मैं बताऊँगा तुम कौन हो !…….तुम सर्वव्यापी आम मानव हो ,…….तुम स्वयं वरदान और स्वयं विडंबना भी !….. तुम सत्व की प्रतिमूर्ति और तमस का भण्डार हो ,.. तुम सम्राट भी हो और दीन भिक्षुक भी !….तुम नाचिकेता से बुद्धिमान और कालिदास से मूर्ख हो !…….तुम वज्र से कठोर और माखन से कोमल हो !…….तुम स्वयं ब्रम्ह रूद्र विष्णु सरस्वती लक्ष्मी शक्ति हो !….तुम्ही ताड़कासुर महिषासुर आदि राक्षस हो ,….तुम ज्ञान का प्रकाश हो .. तुम अज्ञान का अन्धकार भी हो !…..तुम योगिराज कृष्ण हो .. तुम्ही पापी कंस जरासंध भी हो !…तुम्ही राम तुम्ही रावण हो !….तुम राजा बलि और दधीचि जैसे उदार महादानी और ध्रतराष्ट्र जैसे संकुचित कृपण हो ,…तुम सिंह से साहसी और शशक से कायर हो !….तुम्ही ब्रम्हांड और तुम्ही बिंदु हो !…तुम सत् राज तम युक्त प्रकृति हो !…तुम वह शक्तिपुंज हो मूरखराज जो शक्तिहीनता के भ्रम से अस्त हो जाता है !……प्रथम पक्ष के साथ रहो ,….कर्तव्य से वैराग्य की भावना नर्कगामी होती है ,… कर्मफल से वैराग्य लो ,..संसारी साधना कठिनतम साधना अवश्य है ,.किन्तु तुम लक्ष्यप्राप्ति के सर्वथा योग्य हो !…”…..

“..अब पूर्ण सत्व राह दो दीनानाथ !….तमस से पूर्णतया मुक्त करो !..आप मेरी मजबूरी जानते हैं !…”…

“..यदि तुम सतोन्मुख न होते तो यहाँ न आते !……आज से तुम हर पाप से मुक्त हो  ,..तुम्हारा दिया वचन आज वापस लेता हूँ ,..तुम हर बंधन से आजाद हो !….तुम्हारी हर प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ! !..तुम्हारे भावों ने तुमको जिता दिया मूरखराज !…..तुम्हारे ऊपर भगवान सदाशिव की महान अनुकम्पा मुझे भी स्वीकार है !….समस्त देवियाँ तुमसे पुत्रवत स्नेह करती हैं !…”……….सुमधुर अलौकिक शब्दों से देव सभा प्रसन्न होती जा रही थी ,….असीम अनुकम्पा पाकर मूरख नयनों से अश्रुधार फिर तेज हो गयी …….नारद जी आगे बढे

“..भक्त !…..अभी तुम भगवन तक नहीं पहुंचे हो …उन्होंने तुमको बुलाया है ,…. तुम जीव पीड़ा में रोते थे !……तुम ईश प्रतिनिधि स्वामीजी के ह्रदय से साथी बने इसलिए तुम्हारे पाप क्षमा हुए हैं ,…..दोनों विकल्पों में अंतिम चुनाव तुम्हे ही करना है !…आत्मज्ञान आत्मदर्शन से ही तुम्हारे सब कार्य पूर्ण होंगे !.यह तुम्हे स्वयं ही करना होगा !.”

“.असीम कृपा के बाद कुछ चुनने के लिए शेष नहीं बचता भक्तश्रेष्ठ !…”……………..मूरख ने जरा प्रतिवाद से अत्यंत आभार व्यक्त किया .

“…यह तुमने पहले भी कहा था ,….फिर सोच लो !…क्या अभी कुछ संशय है !…”………..इसबार यमुना मैय्या ने प्रतिप्रश्न किया .

“..आपकी सर्वज्ञता से कौन अनभिज्ञ होगा !…..संशय शेष है प्रभु !…”……………..मूरख के प्रश्न पर सभा कुछ हैरान  हो गयी मूरख आगे बोला .

“….वेद भगवान के प्रकाश में पूर्ण सतगुणी दैवीय मानव समाज का पतन क्यों हुआ ,… रामावतार के बाद भी निम्न युग क्यों आया  ,….कृष्णावतार के बाद कलिकाल का प्रवेश क्यों हुआ ,…हमारे महान महर्षि तपस्वी मुनि ,..महावीर बुद्ध ईसा मोहम्मद कबीर नानक विवेकानंद आदि सब महापुरुष अंततः नाकाम क्यों हुए !……हम उनकी शिक्षाएं लंबे समय तक क्यों नहीं आत्मसात कर पाए !… आपने ज्ञान को साबुन जैसा बताया है ,..हम दिव्यज्ञान के बावजूद मूरख क्यों बने !…”

..मूरख प्रश्न से देवसभा हास्यरस में सराबोर हो गयी !…..नारद जी बोले …… “…यही तुम्हारा ब्रम्ह-अज्ञान है ,…परिवर्तन ही जीवन है ,…..दुनिया प्रभु की योगमाया है …. उसे तुम खेल स्वप्न कुछ भी समझ सकते हो !…..और कोई महापुरुष नाकाम नहीं हुआ है न होगा !….उन्ही महापुरुषों के तप से धरा टिकी है जहाँ तुम चलते हो !…… तम बढ़ना फिर सत्व का उदय नित्य प्रक्रिया है ,.संघर्ष ही जीवन है ,..तभी फलस्वरूप असीम आनंद मिलता है ,…..जन्म के साथ कर्म भी प्रारम्भ होता है ,….तुम भी सतत कर्मशील बनो ,..अपनी अकर्मण्यता से तुमसब लाचार हुए अन्यथा भारत भूमि पर कोई कमी नहीं !……. सज्जनशक्ति में एका तुम्हारा प्रथम ध्येय होना चाहिए !…दुष्ट स्वयं मिट जायेंगे !….तुम जैसे असंख्य मूरख और अनेकों तपस्वी भारत भूमि पर हैं !….. रामराज्य किसी युग के बंधन में नहीं है ,….समर्पित रामत्व भाव से पुरुषार्थ कर उसे कभी भी लाया जा सकता है !…तुम्हारा अंतिम लक्ष्य परमधाम प्राप्त करना है !..”

मूरख ने फिर धृष्टता की ……..“.वो कदापि मेरा लक्ष्य नहीं है भगवन ,..जब तक भारत माता बेड़ियों में जकड़ी है ,..मानवता के जख्म सुन्न हैं तब तक कोई अन्य कामना नहीं होगी !…पावन धरा पर फिर स्वर्ग लाना होगा ,…..प्रभु दुनिया में अन्धकार मिटाने कब आओगे !…”

इसबार भगवान भोलेनाथ बोले …….“…तुम्हारा यही भाव मेरा क्रोध रोक लेता है ,…..मूरखराज हम वहीँ तो हैं  !……प्रत्येक मानव जीव जंतु वनस्पति में मैं ही हूँ ,….सब हमारा ही रूप हैं !……..तुम पहचानों तो सही !….तुम्हारे यहाँ आने का लक्ष्य यही है !…..”

“..फिर भ्रमित करते हो महाप्रभु !…….सबने ईश्वर एक बताया है ,….फिर ये अनेक रूप क्यों !…”

श्री हरि फिर मुस्काए ………….“..यह भ्रम नहीं दृष्टि संकीर्णता है ,..इसी कारण सभी मानवीय संघर्ष हुए ,….मैं अनेक में एक और एक में अनेक हूँ ,..यहाँ उपस्थित सभी देवी देवता ऋषि मुनि मेरे ही अंश हैं ,….मेरे लिए कोई भी नकारत्मकता स्वीकार्य नहीं है ,.मैं ही विष्णु शिव ब्रम्ह हूँ .. मैं ही शक्ति .. मैं ही सूर्य हूँ ,….मैं ही राम ..मैं ही कृष्ण हूँ ,…. मैंने ही महावीर बुद्ध को ज्ञान दिया ,.मैंने ही ईसा को मसीह बनाया ,….मैंने ही मोहम्मद को सन्देश दिया !…..मै ही नानक को मिला ,..मैंने ही कबीर बनाया ,…मैं ही राधा मीरा मैं ही मोहन !……मैं ही चैतन्य मैं ही सूर तुलसी !…सबकुछ सिर्फ मैं हूँ !…..तुम जैसे चाहो स्वीकार करो ,…समयानुसार मैं ही सब करता हूँ ,…..मुझे किसी रूप में नकारने का अधिकार किसी को नहीं है ,…….. राज्य बढाने के लिए कुटिलता से मेरा सहारा लेने वाले विनाश की तरफ जा रहे हैं ,……तुम विचारों का शोधन करना चाहिए !…शब्द विचार नाद का शुद्धतम बीज ओंकार मैं ही हूँ !………उसे पोषते जाओ !……. सत्य सनातन धर्म की परिष्कृत पुनरस्थापना तुम्हारा कर्तव्य है ,….इसी से मानव कल्याण होगा !….उसके पूर्ण होते ही तुम मेरे धाम का अधिकार प्राप्त कर लोगे ..”

“..हे दीनानाथ ,.. आप आपने खेल के स्वामी हो ,.. जैसा चाहोगे वैसा ही चलाओगे !,….लुटेरी सत्ता कुटिलता की सीमायें तोडती जा रही है !..”

“..राष्ट्रऋषि के रहते तुम व्यर्थ चिंता करते हो !…..कुटिलता के प्रतिउत्तर में तुम कुटिल मत बनो !…..उनके नाश में महान भारत राष्ट्र समर्थ है  ,…तुम्हारी शक्ति उनसे बहुत ज्यादा है,.. निरीह भिक्षुकों की तरह दीन हीन मत बनो !..अपने धर्म का पालन करो !..आलस्यहीन होकर कर्मपथ पर निरंतर आगे बढ़ो ….कुटिलता का अंत अवश्यम्भावी है ,…….कुटिल लालची ढोंगी अत्याचारी सत्ताओं का अंत सुनिश्चित है ,…अब जाओ ..अपने ज्ञान सामर्थ्य शक्ति पर संशय मत करना ,..यह मेरा अपमान होगा !…….बिना शास्त्र पढाए तुम्हे सब ज्ञान देता हूँ  ,…….तुम महान तपस्वी योद्धा के साथी हो ,..उनके पीछे रहना तुम्हारा धर्म है ,..आवश्यकतानुसार बढ़कर युद्ध करना भी तुम्हारा धर्म होगा ,…अपनी राह स्वयं बनाओ !….मैंने तुम्हे सबकुछ दिया है .. और सबकुछ दूंगा !….तुम्हारी पताका का शिखर मैं ही हूँ ,..तुम्हारी मेधा का बीज भी मैं हूँ ..संगठित होकर राष्ट्रधर्म पर बढते जाओ ,..विजय तुम्हारी प्रतीक्षा में है …सर्वसम्पन्न भारत का स्वप्न निश्चित ही पूर्ण होगा !….”

“..प्रभु …परीक्षा कब तक होगी !…”…………….मूरख दीनता से बोला .

प्रभु की मुस्कान रहस्यमयी ढंग से बहुत लंबी हो गयी !……… “..जब तक उत्तीर्ण नहीं हो जाते !…तुमने मुझे नहीं चुना ,….मैंने तुम्हारा चुनाव किया है ,..उत्तीर्ण करके ही मानूंगा !…”

“…प्रभु आपके विराट स्वरुप के दर्शन का अभिलाषी हूँ !……”…………………..मूरख ने प्रबल विनती की तो श्रीहरि के साथ पूरी देव सभा मुस्काने लगी ,….मधुरतम वाणी फिर गूंजी .

“..अभी वो समय नहीं आया ,…. ब्रम्हांड और उसके पार के समस्त देवी देवता यक्ष किन्नर गन्धर्व मानव दानव जीव जंतु वनस्पति जड़ जंगम सब मुझमें हैं !……तुम्हे विश्वरूप देखने का सामर्थ्य अभी नहीं दे सकता ,…..पहले तुम्हे बहुत कार्य करना है ,…. ध्यान से सुनो …. मैं तुम्हारा और तुम मेरे हो ,..समस्त साधन तुम्हारे लिए हैं !..,..सत्व का शोधन तमस मिटने के बाद ही प्रारंभ होगा !..आज से ही प्रारम्भ करो !….लंबी यात्रा में थकना मत ,…कदापि कभी अभिमान मत करना ….यह विजय तुम्हारी नहीं तुम्हारे प्रेरणा पुंजों और समस्त मानव जाति की होगी  ,….किसी से भी मत डरना ,न पीछे हटना ,……तुम समस्त दोषों से मुक्त हो !….मायावी राक्षस मेरे धैर्य की परीक्षा भी लेते हैं ,…वो भी मेरा ही अंश हैं ,…मैं तटस्थ रहकर भी तुम्हारे साथ हूँ ,…सत्य की विजय अवश्यम्भावी है !……पृथ्वी परिवर्तन के दौर में है ,…पतन की जगह उत्थानमार्ग ढूंढो !…..विश्व सुराज का रास्ता भारत सुराज से होकर जाता है !……उसका निश्चित रास्ता वैदिक भक्तिमार्ग है ,..जिसे तुमने रामधर्म भी कहा है !…….अपने लक्ष्य के लिए जय-पराजय हानि-लाभ मान-अपमान यश-अपयश आदि समस्त चिंताएं छोड़कर दिन रात एक कर दो !….मुझमें लीन होकर अपने कर्म में लग जाओ ! .”

मूरख की अश्रुधार और गहरी हो गयी …….. “..भगवन .. अब कब मिलोगे !….क्या यह अविश्वसनीय सत्य सार्वजनिक कर सकता हूँ !.”

“…मैं सदा तेरे साथ हूँ मूरख ,…..तुम जो चाहे करो !…..तुम्हारे लिए सदा सर्वत्र अमृतवर्षा है ,…विष भी अमृत बनकर मिलेगा !…. कोई आवरण मत लगाना ,..मैं भी तुम्हारा कुम्भ भरने कर लिये व्याकुल हूँ ,……संशयरहित होकर पूर्णता से मेरी तरफ चले आओ !…..अब तुम्हे आत्मदर्शन करना होगा !……अब तुम्हे जाना चाहिए पुत्र !..”…………….मूरख बहुत कुछ सुनना चाहता था लेकिन हरि इच्छा इतनी ही थी ,…  पुनः दंडवत हो गया ,….देव सभा का दिव्य आशीर्वाद मूरख के अस्तित्व में प्रवेश करता लगा …..मूरख देबांश साथ लेकर जाना चाहता था ..

तीर्थराज उठाकर बोले …. “..जाओ वीर मानव !…….तुम्हारी पंचायत प्रतीक्षा में है ,…कभी कभी मेरे पास आते रहना !….मुझे बहुत अच्छा लगेगा !!..”………………………उन्हें प्रणाम करने के बाद मूरख की चेतना लौटी तो वह रुद्रावतार रामदूत की लेटी प्रतिमा के दर्शन कर रहा था ……….उनका आशीर्वाद लेकर राम सुमिरन करते हुए प्रयागराज से फिर प्रस्थान किया !…

नमोस्तुते तीर्थराजम पुन्यभूमिः गरीयसी

नमो नमः सर्वदेवम पूर्णदेवम नमोस्तुते !!……भारत माता की जय !

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